Akhra
जोहार! आदिवासी कभी नहीं हारे, चाहे मिथक हो, इतिहास हो या कि वर्तमान. हुलगुलान जिंदाबाद!!
वंदना टेटे

  • HOME
  • ORGANISATION
    • Why Akhra
    • Organisation
    • Constitution
    • Akhra Mahasammelan
    • Conference Reports
    • Akhra Samman
    • Membership Request
    • Contact AKHRA
  • LANGUAGES
    • Adivasi Languages
    • Deshaj Languages
    • Endangered Languages
    • Language Learning Kit
    • Language Resources
    • Languages Dictionaries
    • Language Search
  • LITERATURE
    • Adivasi Literature
    • Deshaj Literature
    • Hindi Literature
    • English Literature
    • Important Articles
    • Literature Search
  • WRITERS
    • Adivasi Writers
    • Deshaj Writers
    • Hindi Writers
    • English Writers
    • Writers Interviews
    • Writers Search
  • HISTORY
    • Colonial History
    • Post-colonial History
    • Ongoing Resistance
    • Our Warriers
    • Our Pioneers
    • Historical Timeline
    • Historical Places
  • CULTURE
    • Indigenous Community
    • Adivasi Dharam
    • Indigenous Traditions
    • Indigenous Culture
    • Indigenous Theatre
    • Indigenous Songs
    • Indigenous Videos
    • Indigenous Films
    • Indigenous Documentary
    • Jharkhandi Greetings
    • Cultural Places
  • SPORTS
    • Jharkhandi Sports
    • Hockey
    • Archery
    • Football
    • Atheletics
    • Rural Sport
    • Child Sport
  • CAREER
    • JPSC
    • JET/NET
    • JRF
    • TRL (RU) Syllabus
    • UGC Syllabus
  • ONLINE BOOKS
    • Online Book Store
    • New Arrival
    • Popular Books
    • Book Search
  • CONTACT
001

हम थे

हम हैं

हम रहेंगे

See English version


जोहार!


यह वर्ष 1921 में गठित बिहार-ओड़िसा गवर्नर लेजिस्लेटिव काउंसिल (2000 से झारखंड विधानसभा) का शताब्दी साल है। इस ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार 2021 में भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी भागीदारी, हस्तक्षेप और योगदान के सौ साल पूरे हो रहे हैं।

1921 में पहली बार आदिवासियों को ब्रिटिश शासित भारतीय विधायिका में सामान्य निर्वाचन क्षेत्र और आरक्षित मनोनयन के द्वारा शामिल होने का सीमित अवसर मिला। जहां से जमीनी संघर्ष के साथ-साथ उनके विधायी संघर्ष का नया इतिहास शुरू होता है। हालांकि इसमें कोई शक नहीं कि शिक्षा एवं नौकरियों में आरक्षण तथा विधायिका-संसद में प्रतिनिधित्व के द्वारा औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक दोनों सत्ता का मकसद आदिवासियों की मूल सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था को नष्ट कर उन्हें अपने भीतर समाहित कर लेना था। क्योंकि एक ओर जहां सत्ता आदिवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार एवं अन्य विकासीय योजनाएं दे रही थी; वहीं, दूसरी ओर वह उनके संसाधनों को लूट रही थी, उन्हें उनके नैसर्गिक पुरखा बसाहटों से जबरन बेदखल और विस्थापित कर रही थी तथा उनकी सामाजिक-आर्थिक संरचना (स्वशासन) को ध्वस्त कर रही थी।

इसी के साथ यह मुद्दा तो महत्वपूर्ण है ही कि 20वीं सदी के आरंभिक दिनों में, विशेषकर प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, ‘प्रजातांत्रिक सुधारों की प्रक्रिया’ चलाने वाली औपनिवेशिक सत्ता का रूख क्या था; और बाद के दिनों में देश की स्वाधीन सरकार भारतीय विधायिका एवं संसदीय व्यवस्था में आदिवासियों को समुचित प्रतिनिधित्व (जयपाल सिंह मुंडा के शब्दों में ‘पूर्ण प्रतिनिधित्व’) देने के सवाल पर किस तरह का भेदभाव करती रही है।

तब भी, हम देखते हैं कि आदिवासियों ने इस अवसर का लाभ उठाया और नई विधायी संरचना व संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में परंपरागत स्वशासन और आत्म-निर्णय के अधिकार की रक्षा के लिए जबरदस्त हस्तक्षेप किया। औपनिवेशिक काल से संघर्षरत आदिवासियों ने 1921 से भारतीय विधायी व्यवस्था में जल जंगल जमीन और भाषा-संस्कृति के सवालों को बड़ी मजबूती से उठाया और इस क्रम में उन्होंने न केवल आधुनिक भारतीय समाज में आदिवासी आकांक्षाओं और आदिवासियत की राजनीति को स्थापित किया बल्कि संसदीय लोकतंत्र के स्वरूप को भी गढ़ने का प्रयास किया।

साथ ही विधायी भागीदारी और हस्तक्षेप के द्वारा उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों एवं सरकारी नीतियों तथा कार्यक्रमों को आदिवासियों के अनुकूल बनवा पाने में, उनको संशोधित करने और लागू करवाने में सफलता पायी। संविधान में 5वीं-6ठी अनुसूचियों का शामिल किया जाना, ट्राइबल एडवाइजरी काउंसिल का गठन, आपराधिक जनजाति एक्ट का उन्मूलन, पंचशील, केंद्र और राज्यों में आदिवासी कल्याण मंत्रालय की स्थापना, 1996 का पेसा एक्ट, 2006 का वनाधिकार अधिनियम आदि इसके उदाहरण हैं। इस तथ्य को शायद ही कोई नकार पाए कि झारखंड, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और उत्तराखंड राज्यों का गठन आदिवासियों के जमीनी और विधायी ऐतिहासिक संघर्ष की देन हैं।

यही नहीं, आदिवासी जनप्रतिनिधियों, विधायकों और सांसदों ने सांप्रदायिकता, धर्मांधता, नस्लीय, जातीय, लैंगिक भेदभाव आदि पर भी जमकर प्रहार किया। शिक्षा, स्वास्थ्य, महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार जैसे देश के प्रमुख सवालों को पूरी आदिवासी समझ के साथ उठाया। अल्पसंख्यकों के भाषायी और सांस्कृतिक मुद्दों को संबोधित किया। किसानों, मजदूरों, छात्रों, महिलाओं आदि तबकागत वंचित समूहों के साथ डटकर खड़े हुए। देश में सच्चे और स्वस्थ लोकतंत्र की पुनर्रचना के लिए हरसंभव कोशिश की।

आज भी भारत का आदिवासी समाज देश के सच्चे लोकतांत्रिक स्वरूप की स्थापना के लिए संवैधानिक एवं शांतिपूर्ण तौर-तरीकों से लड़ रहा है। लेकिन सौ सालों के इस आदिवासी विधायी संघर्ष और संसदीय लोकतंत्र के विकास में उनके द्वारा किए गए योगदान पर राजनीतिक लेखकों, इतिहासकारों और बौद्धिक-अकादमिक स्कॉलरों ने ध्यान नहीं दिया। अगर इस पर कोई चर्चा भी हुई है तो वह केवल ‘प्रतिनिधित्व और भागीदारी’ के आंकड़ों तक ही सिमटा हुआ है। इस तरह आधुनिक भारतीय राजनीतिक इतिहास से आदिवासी भागीदारी, हस्तक्षेप और योगदान पूरी तरह से गायब कर दिया गया। नतीजतन, आधुनिक भारतीय राजनीति में उन लोगों को आदिवासियों का नायक और मसीहा बनाने का रास्ता साफ हो गया जिन्होंने संविधान में ‘आदिवासी’ पहचान को विलोपित करवाया था और उन्हें ‘समुदाय’ से ‘जाति’ की परिधि में घसीटने की संवैधानिक व्यवस्था की थी।

आज जब आदिवासी विमर्श भारत के सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक-सांस्कृतिक और अकादमिक जगत को सबसे ज्यादा उद्वेलित किए हुए है, सौ सालों के दौरान भारतीय विधायिका और लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में आदिवासियों द्वारा की गई भागीदारी, हस्तक्षेप और योगदान का अध्ययन व मूल्यांकन जरूरी है। न केवल भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास लेखन को संपूर्णता प्रदान करने के लिए बल्कि आदिवासियों के स्वशासन संघर्ष को स्टेट के दमन से सुरक्षित रखने के लिए भी, और उनके वर्तमान व भविष्य की राजनीतिक दशा-दिशा को समझने के लिए भी।

इस विस्मृत गौरवपूर्ण इतिहास और महत्त्वपूर्ण आदिवासी विषय को झारखंडी एवं देश की आम जनता, इतिहासकारों, लेखकों और स्कॉलरों तक ले जाने के लिए 26 अक्टूबर 2021 को हम एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन कर रहे हैं। सेमिनार का थीम है - भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप के सौ साल (1921-2021)। इसका आयोजन झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा द्वारा डॉ. रामदयाल मुंडा आदिवासी कल्याण शोध संस्थान, कल्याण विभाग (झारखंड सरकार) के सहयोग से किया जा रहा है।

आपकी रचनात्मक सहभागिता ही सेमिनार को सार्थक बनाएगी।


आभार सहित


अश्विनी कुमार पंकज

सेमिनार संयोजक


सेमिनार का विस्तृत रूपरेखा-कार्यक्रम यहां देखें।

सेमिनार का आमंत्रण-पत्र यहां उपलब्ध है।


सेमिनार के मुखपृष्ठ पर वापस लौटें।


स्वागत है आप सभी का

आप सादर आमंत्रित हैं

एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार ‘भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप के सौ साल’ के अवसर पर

बिरसा, फूलो-झानो, माकी और जयपाल सिंह मुंडा के देश में.


Join akhra & save, protect, preserve Adivasi Languages and culture.
Send your valuable support, suggestons & donation at toakhra@gmail.com

Related Links

001
Organisational Structure
003
Akhra Mahasammelan
0037
Conference Reports
003
Akhra Samman
003
Membership Request
003
Contact AKHRA

Recent AKHRA Activity

© Jharkhandi Bhasha Sahitya Sanskriti Akhra @ PKF 2004-21
facebook rss twitter google