यह वर्ष 1921 में गठित बिहार-ओड़िसा गवर्नर लेजिस्लेटिव काउंसिल (2000 से झारखंड विधानसभा) का शताब्दी साल है। इस ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार 2021 में भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप एवं भागीदारी के सौ साल पूरे हो रहे हैं।
1921 में पहली बार आदिवासियों को भारतीय विधायिका में शामिल होने का अवसर मिला। जहां से जमीनी संघर्ष के साथ-साथ उनके विधायी संघर्ष का नया इतिहास शुरू होता है। औपनिवेशिक काल से संघर्षरत आदिवासियों ने 1921 से भारतीय विधायी व्यवस्था में जल जंगल जमीन और भाषा-संस्कृति के सवालों को बड़ी मजबूती से उठाया और इस क्रम में उन्होंने न केवल आधुनिक भारतीय समाज में आदिवासी आकांक्षाओं और आदिवासियत की राजनीति को स्थापित किया बल्कि संसदीय लोकतंत्र के स्वरूप को गढ़ने का भी प्रयास किया। आज भी भारत का आदिवासी समाज देश के सच्चे लोकतांत्रिक स्वरूप की लड़ाई संवैधानिक एवं शांतिपूर्ण तौर-तरीकों से लड़ रहा है। लेकिन सौ सालों के इस आदिवासी विधायी संघर्ष पर राजनीतिक लेखकों, इतिहासकारों और बौद्धिक-अकादमिक स्कॉलरों ने ध्यान नहीं दिया।
आज जब आदिवासी विमर्श भारत के सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक-सांस्कृतिक और अकादमिक जगत को सबसे ज्यादा उद्वेलित किए हुए है, सौ सालों के दौरान भारतीय विधायिक और लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली में आदिवासियों द्वारा किए गए हस्तक्षेप और योगदान का अध्ययन व मूल्यांकन जरूरी है। न केवल भारत के आधुनिक राजनीतिक इतिहास लेखन को संपूर्णता प्रदान करने के लिए बल्कि आदिवासियों के वर्तमान और भविष्य की दशा-दिशा को समझने के लिए भी।
इस विस्मृत गौरवपूर्ण इतिहास और महत्त्वपूर्ण विषय को झारखंडी एवं देश की आम जनता, इतिहासकारों, लेखकों और स्कॉलरों तक ले जाने के लिए 26 अक्टूबर 2021 को हम एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन करने जा रहे हैं। सेमिनार का थीम है - भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप के सौ साल (1921-2021)। इसका आयोजन झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा द्वारा डॉ. रामदयाल मुंडा आदिवासी कल्याण शोध संस्थान, कल्याण विभाग (झारखंड सरकार) के सहयोग से किया जा रहा है।
इस राष्ट्रीय सेमिनार में कोविड-19 महामारी के संबंध में केंद्र और राज्य सरकार द्वारा जारी मार्गनिर्देशों के अनुसार सीमित संख्या में प्रतिभागी शामिल किए जाएंगे। आदिवासी समाज, साहित्य और राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले आम लोगों और रिसर्च स्कॉलरों को विशेष प्राथमिकता दी जाएगी।
सेमिनार का अवधारणा-पत्र यहां पढ़ें।सेमिनार का विस्तृत रूपरेखा-कार्यक्रम यहां देखें
सेमिनार का आमंत्रण-पत्र यहां उपलब्ध है।प्रतिभागी निबंधन शुल्क मात्र ₹600 रुपया है। सेमिनार में भाग लेने के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन फॉर्म यहां सबमिट करें।प्रतिभागी निबंधन शुल्क ₹600 यहां जमा करें। याद रखें, आपका रजिस्ट्रेशन फॉर्म और शुल्क 20 अक्टूबर 2021 तक हमें अवश्य मिल जाना चाहिए।
यदि आप सेमिनार में अपना पेपर सबमिट करना चाह रहे हैं, आलेख पढ़ना चाहते हैं तो अपने आलेख का सार संक्षेप निम्नांकित विषयों पर भेज सकते हैं-
1. स्वतंत्रता पूर्व भारतीय विधायिका और संसदीय राजनीति में आदिवासियों की भूमिका
2. स्वतंत्रता पश्चात भारतीय विधायिका और संसदीय राजनीति में आदिवासियों की भूमिका
3. भारतीय विधायिका और संसदीय राजनीति में आदिवासी महिलाओं की भागीदारी और उनका योगदान
4. भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के निर्माण में आदिवासी विधायकों-सांसदों की भूमिका
5. सौ साल की विधायिका और संसद में अनुत्तरित आदिवासी सवाल
6. आदिवासी स्वशासन संघर्ष और भारतीय विधायिका का रूख
7. सौ साल की विधायिका और संसद में आदिवासी हस्तक्षेप के सौ साल
8. भारतीय विधायिका और संसदीय राजनीति में आदिवासी दलों के प्रतिनिधित्व का इतिहास
9. भारत की विधायी व्यवस्था और संसदीय राजनीति में आदिवासी महासभा का योगदान
10. वर्तमान चुनौतियों के संदर्भ में भारतीय विधायी और संसदीय व्यवस्था में आदिवासी जनप्रतिनिधियों के कार्यभारलेकिन आपके पेपर/आलेख का सार संक्षेप हमें 20 अक्टूबर 2021 तक और कंपलीट पेपर/आलेख 25 अक्टूबर 2021 की देर रात तक जरूर मिल जाना चाहिए। अपने पेपर/आलेख का सार संक्षेप ऑनलाइन यहां सबमिट करें।चयनित आलेखों को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने की योजना है जो जनवरी 2022 में रिलीज की जाएगी।
स्वागत है आप सभी का
आप सादर आमंत्रित हैं
एक दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार ‘भारतीय विधायिका और संसदीय लोकतंत्र में आदिवासी हस्तक्षेप के सौ साल’ के अवसर पर
बिरसा, फूलो-झानो, माकी और जयपाल सिंह मुंडा के देश में.
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